जो भी लड़ा मेरे लिए
दुश्मनों से जा मिला
साथ में मेरी अधजली
रोटी भी ले गया
सदीयान बीत चुकी
अब मन करता है
नियती को मान ही लूँ
पेट से आई मानसी
दबी आवाज़ में कराह रही है
और कोने में रखी
चुराई हुई खाकी बंदूक
दिए की लौ में चमक रही है
कल पौ फटने पर
एक बार फिर कोशिश करूँगा
लकिरें बदलने की, एक पूरी रोटी की
Thursday, September 16, 2010
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