Thursday, September 16, 2010

अनवरत

जो भी लड़ा मेरे लिए
दुश्‍मनों से जा मिला
साथ में मेरी अधजली
रोटी भी ले गया

सदीयान बीत चुकी
अब मन करता है
नियती को मान ही लूँ

पेट से आई मानसी
दबी आवाज़ में कराह रही है
और कोने में रखी
चुराई हुई खाकी बंदूक
दिए की लौ में चमक रही है

कल पौ फटने पर
एक बार फिर कोशिश करूँगा
लकिरें बदलने की, एक पूरी रोटी की

3 comments:

soumma said...

Awe inspiring.....but i almost witnessed it taking shape....

haleem said...

Superb...heart touching !!

Sultan said...

All the Best: Kal ki कोशिश ke liye